Friday, December 28, 2012

मेरी कल्पना

कल्पनाओं के पंखों से उड़ जाती मैं
हर एक देश.....
जी कर आती हर सपने को  .
मिलकर आती हर अपने को .
वहाँ कोई नियम नहीं और कोई भँवर नहीं ..
बस पलकें बंद करने की देरी  ..
बस सच से हाथ छुड़ाने की देरी ..
वो झूठ सही पर सच सा है .
वो वहम सही पर कुछ तो है .
कल्पना की हर सीढ़ी खोखली ,
कोई यथार्थ नहीं ,
पर सच का कोई बोझ भी नहीं ....
 कल्पना के अक्षर सफ़ेद स्याही से लिखे ,
जिनका कोई वजूद नहीं ,
पर उन्हें किसी के पढ़ लेने का डर भी नहीं ....
कल्पना निरीह है पर सर्वशक्तिमान है .
कल्पना निर्जीव है पर सपनों का जीवन्त रूप है .
कल्पना तू मात्र कल्पना है ,
पर छड़ भर ही सही हर सच से भली है !! 

Saturday, December 22, 2012

मुझे औरत न बनाना

ऐ खुदा ,
तू मुझे तारा बना दे ,
कि दूर गगन से देखूँ तेरी इस सुन्दर दुनिया को ..
तू मुझे चींटी बना दे ,
कि चलते - चलते चढ़ जाऊं मैं पर्वत पर ..
तू मुझे पंछियों से पंख दे दे ,
कि उड़ जाऊं मैं दूर कहीं ..
तू मुझे बादल बना दे ,
कि मैं दिल खोल के बरसूँ ..
तू मुझे डाल से गिरा पत्ता बना दे ,
कि मैं उड़ जाऊं कहीं हवा के झोंकों संग ..
तू मुझे नदिया की धार बना दे ,
कि मैं बहती ही जाऊं समंदर से मिलने की खातिर ..
कुछ न कर सके अगर तू मेरे लिये
तो मुझे रास्ते का पत्थर ही बना दे ,
कि हर ठोकर के साथ रास्ते के एक नये कोने से जा मिलूँ ..
पर रहम करना मुझपर
मुझे औरत न बनाना ....
ऐ खुदा ,
वैसे एक बात तो बता ..
तेरा वक्त फालतू है क्या
जो तू औरत बना के उसे ज़ाया करता है .
अगर है तो कभी उसे इतना बेबस बनाने की
वजह तो उसे ज़रूर बताना ....
कि आँखें तो हैं पर नज़रें झुकी हुई सी ..
आवाज़ तो है पर सहमी हुई सी ..
होंठ तो हैं पर एक नन्ही सी मुस्कान को भी तरसे ..
गर्दन तो है पर झुकी हुई सी ..
हाथ तो हैं पर खुद की हिफाज़त में असक्षम ..
क्या तू भी स्वार्थी है ,
जो अपनी स्रस्टि को पूरा करने की खातिर
रच दी है औरत ,
जो गला के खुद को देती है पूर्णता तेरी स्रस्टि को .
अगर ऐसी ही औरत बनानी है तुझे , तो ,
उसकी आँखों में कोई सपना न देना ..
उसे ये वहम न देना कि वो भी औरों के बराबर है ....
 

Saturday, December 15, 2012

बड़ी दीदी वाली बिग स्माइल

तुम्हारी उलझी - पुलझी चोटी के बिखरे बालों सी तुम
कब रोती हो , कब हँसती हो क्या जानूँ .
तुम्हारी शर्ट के बंद ऊँचे - नीचे बटन सी तुम
कब रूठती हो , कब मानती हो क्या जानूँ .
आँखों में हरदम आँसू हैं , गाल हमेंशा फूले हैं .
कब खुश होती हो और कब गुस्सा ....क्या जानूँ .
तुम्हारी ऊँची - नीची स्कर्ट सी तुम
कब संग चलती हो और कब पीछे ....क्या जानूँ .
बिस्तर का कोना छीना मुझसे ,
मम्मी से भी दूर किया ,
घर में होने वाली हर ज़िद पर अपना पहला अधिकार किया .
पापा भी मुझसे पहले गोद में तुमको लेते हैं .
भैया का तुम अब नया खिलौना हो ,
मोहल्ले की अन्टियों की चर्चा हो .
मेरी भी सहेलियों को तुम प्यारी हो .
सबसे ज्यादा लड्डू तुमको मिलते हैं .
कपड़े भी हर बार तुम्हारे ही नये बनते हैं .
मेरी किताबें देख मुंह बिदकती हो
बस अपने रंगों में खो जाती हो .
हर रोज़ सोंचती मैं ....
तुम न होती तो क्या होता ,
जो भी मुझसे छिना , सब मेरा होता ..
पर आज जब तुमने मुझसे पीछे नहीं ,
मेरे संग चलने की कोशिश की ..
हाथ पकड़ कर धीरे से दीदी कहने की कोशिश की ..
एक बार लगा जैसे उन ठंढी उँगलियों ने भी कुछ कहा मुझसे .
मुड़कर देखा तुमको पर तुम तो चुप थी ,
हल्का सा मुस्काई , फिर से एक बार कहा मुझको दीदी .
हम - तुम स्कूल पहुँच चुके थे .
तुम अपनी क्लास की लाइन में थी और मैं अपनी ....
इंटरवल की घंटी बजते ही ,
मेरी क्लास के दरवाज़े पर थी तुम .
मैंने घूर के देखा तुमको .
तुम चुपचाप मेरी सीट पे आई ,
धीरे से मुट्ठी आगे की ..
खोल के देखा उसको मैंने ,
उसमें अचार की एक फांकी थी .
मम्मी ने तुमको नहीं दिया , मेरा अचार तुम लेलो दीदी ....
तुम्हारे छोटे से भोंदू चेहरे पे एक छोटी सी मुस्कान थी
और मेरे चेहरे पर 'बड़ी दीदी वाली बिग स्माइल' थी ..

Saturday, December 8, 2012

एक चींटी

एक चींटी थी नन्ही सी
रेंग रही थी मेरी किताब पर
नज़र गई जब उसपे ,
वो बेखबर थी मुझसे
एक नई डगर बनाती उस कोरे कागज़ पर
बस घूम रही थी पन्ने पर .
मैं रुकी हुई थी कि कब वो जाय ,
कब मैं अपना वाक्य लिखूँ
पर उसकी गति की कोई दिशा न थी .
लगता था जैसे जहाँ दिल करता
वहीं पग धरकर मोड़ती थी वो डगर को
देखते - देखते उसे जब थकीं मेरी आँखें
मेरे उतावलेपन ने मेरे धैर्य को तोड़ा
मैंने उस चींटी को ज़ोर की फूँक के संग
हट जाने का सन्देश दिया ,
पर वो जड़ हुई अपनी जगह पर .
थम गये थे क़दम उसके
अब न उसकी आँखें एक नई डगर का नक्शा बना रही थीं ,
न उसके शरीर की ऊर्जा उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही थी .
पर कुछ पल बाद , उसने फिर अपने पग बढ़ा दिये थे आगे,
खोजने को एक नई डगर ..
कुछ हैरान हुई मैं उसकी हिम्मत देख
कुछ पल ठहरी भी मैं

अब मेरा उतावलापन बन गया था मेरी क्रूरता
मेरी ज़ोर की फूँक ने उड़ा दिया उस चींटी को
दूर कहीं मेरी किताब से ..
मेरे वाक्य के अधूरे शब्द मेरी कलम की स्याही का इन्तजार कर रहे थे
पर न जाने क्यों अब जड़ हो गई थी कलम मेरे हाथों में
निहार रही थी मैं उस चींटी के बिन छपे पैरों के निशानों को
एक पल को लगा जैसे वो कहने आई थी मुझसे
कि वो अन्जान नहीं थी मेरी फूँक के वेग से ..
वो अन्जान नहीं थी अपने अन्त से ..
पर अगर अपनी हिम्मत से जिन्दगी के कुछ पल मिल जाएँ ,
जिन्हें दिमाग नहीं दिल से जिएँ,
उसकी कीमत बाकी की ज़िन्दगी ही सही ..
ये क़ीमत कुछ ज़्यादा नहीं ..
मुझे हैरत हुई ..
मैं आज तक इस चींटी इतनी अमीर ही न हुई ,
जो ये क़ीमत चुका पाती
और जिन्दगी के कुछ पल दिमाग के नियमों की किताब बंद कर
दिल की मनमौजी डगर पे चल के जी पाती .... 

 

Thursday, December 6, 2012

मेरा घर

कई बरस पहले एक मकान खरीदा था ,
जिसे तेरे संग मिलकर एक घर बनाया था .
उस घर की  ठंढी फर्श धरती बनी मेरी और छत आकाश ..
उसकी चार दीवारों में दुनिया बसी मेरी ....
घर के लोगों के सिवाय ,
बस छत के पंछियों संग मेल था मेरा .
अब भी सब कुछ पहले जैसा ही है
सब कुछ उतना ही पूरा
पर कुछ तो है जो जा रहा है मेरे हाथों से ,
निकल रहा है मेरे घरौंदे से ....
तुम अपनी दुनिया में खो रहे हो कहीं ,
और , तुमसे और मुझसे बने घर के नन्हें सदस्य ,
अपने नन्हें संसार में लीन हैं .
छत के पंछी भी दाना चुग के उड़ जाते ,
कोई न रुकता मेरे पास
मैं देर तक देखती उन्हें ,
कि कोई तो कभी लौट आये ..
पर ..पर कुछ देर बाद मैं
खाली बर्तन उठा नीचे आ जाती ....
ऐसा लगता है जैसे कभी - कभी
ये फर्श कहती है मुझसे
ये अब छत की सुरक्षा नही चाहती .
मेरी क्यारी के पौधे भी बागीचे में उगना चाहते हैं .
मेरे घर में पली मछलियों के चेहरे भी अब मुझे मुरझाये से लगते हैं .
मेरे घर के मंदिर की मूर्तियाँ भी कह रही हैं जैसे ....
दे दो मुझे खुला आकाश,
मेरा स्वरूप अब इन ईटों की दीवारों में समाता नहीं ..
बचपन में माँ ने एक बात कही थी
कि हर पंछी अपने घोंसले को बड़ी जान से सम्भालता है
पर एक दिन वो उसे छोड़ उड़ जाता है....
मेरे घर के घोंसले का भी हर पंछी उड़ने की तैयारी में है
बस मुझे छोड़ !! 

Tuesday, November 6, 2012

पुराने जूते

आज पुराने जूतों में पांव डाला
तब फिर से अहसास हुआ
उस गीली मिट्टी का ,
जिसमें सनी थीं कुछ पिछली यादें ....
उस मिट्टी में कुछ कंकड़ भी थे ,
जिनकी चुभन अब इतनी तकलीफ न दे रही थी .
क्योंकि अब ये चुभन भी अपनी सी लगती है ..
इस आज में तो अब परिचित चुभन भी न रही ..
अब लगता है ..
वो 'कल ' इतने भी बुरे न थे
जब हम उनसे जुदा न थे ..
आज आये हैं 'आज' में
तब समझे हैं कीमत उनकी ....

Monday, November 5, 2012

इश्क के मायने

कागज़ों पर खिंची लकीरों में
हम खोजते रहे इश्क के मायने ,
पर , इश्क के मायने तो तेरी आँखों में हैं
जो सुनती हैं वो , जो मैं कहता भी नहीं .
इश्क के मायने तो तेरे आँचल में हैं
जो तेरे बजाय मुझसे लिपटता है .
इश्क के मायने तेरी उस छोटी सी मुस्कान में हैं
जो शर्मा के भी खिलखिलाती हँसी बन जाती है .
इश्क के मायने तेरे नंगे पैरों में हैं
जो बेधड़क बेपरवाह मेरे आंगन में आ जाते हैं .
इश्क के मायने बस तेरे एक खयाल भर में हैं ....

Sunday, November 4, 2012

फिर अधूरे रह गए हम

फिर अधूरे रह गए हम ..
 तुम थे तो पूरे होने लगे थे हम
याद है हमें अब भी ,
अँधेरी गलियों में ढूंढ़ रहे थे हम खुद को ..
गली - दर - गली भटक रहे थे हम .
कई बार ठोकर लगी , कई बार गिरने से भी बचे
पर रुकते कैसे , ढूंढ़ जो रहे थे खुद को .....
एक मोड़ पे हमें तुम दिखे
एक मस्त चाल से चलते तुम नजदीक आए ,
हमें पता भी न चला और तुम साथ चलने लगे .....
जब रुक कर देखा तो तुम साथ मेरे थे .
एक पल सोंचा , साथी हो या हमराही ..
न साथी हो न हमराही ..
बस संग - संग आए दो - चार कदम ..
तुम पथिक हो अपनी राह के ,
और , हम भटके खुद से ....
न साथ सफ़र सम्भव है
न कोई मिलन सम्भव है
फिर ये कैसा असमंजस .......
जब इतनी है दूरी
तो संग चले क्यों थे ..
पूरा किया था हमें बस छोड़ने को अधूरा ..
इस दिवा - स्वप्न में जीने देते
कि , साथी भी हो और हमराही भी ....
एक बात कहें ! जब संग चले तुम मेरे ,
तब भी खोज रहे थे हम खुद को
पर पता था कि अब कोई दरकार नहीं इसकी ....
पर जब एक गली में खुद को तनहा पाया ,
तब हर भरम टूटा
और निगाहों की रफ़्तार तेज हुई ,
तलाश में खुद की ..
आँखों में तलाश थी
जबां पे पुकार थी
और मन में चित्कार थी
कि फिर अधूरे रह गए हम !!



Tuesday, October 30, 2012

Script of Aplomb Spirulina ( client based project )

स्वस्थ जीवन एक अमूल्य निधि है और बीमारियाँ वो दीमक हैं
जो मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ - साथ उसके सफलतम भविष्य की नीव को भी खोखला कर देती हैं.
क्योंकि बेहतर स्वास्थ्य ही जीवन के हर क्षेत्र में सफ़लता की आधारशिला है .
जब हम हर आपदा से बचाव की व्यवस्था रखते हैं
तो बिमारियों से बचाव की व्यवस्था क्यों नहीं ....
एक सही आदत जो बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बढाती है ..
एक सही आदत जिसे दुनिया के काफी देशों में पिछले 20 वर्षों से दिनचर्या का हिस्सा बनाया जा चुका है ..
Aplomb Spirulina एक ऐसा food supplement जिसके नियमित सेवन की आदत बिमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को बढाती है .
Aplomb Spirulina न केवल पूर्णतयः सुरक्षित है बल्कि एक स्वस्थ जीवन के लिए बेहद आवश्यक है .
Spirulina कोई औषधि नहीं है बल्कि यह हमें औषधियों से दूर रखने का बेहतर और सुरक्षित माध्यम है .
यह एक प्रागैतिहासिक वनस्पति है
जो कि घुमावदार आकृति के शैवाल के रूप में पाई जाती है .
यह जिवाडू ( jivadu ) पिछले 3.5 अरब वर्षों से प्राक्रतिक परिवर्तनों को सहते हुए भी सदैंव फलता - फूलता रहा है .
यह खार के गुड़ वाला 100 % क्षारविशिष्ट खाद्द्य उत्पाद है .
इसमें मुलायम और आसानी से पचने योग्य कोशिकाओं द्वारा निर्मित एक दिवार नुमा होती है जिसकी प्रकृति प्रतिरक्षित स्फूर्तिदायक होती है .
  • USFDA, JHFA, KOSHER द्वारा प्रमाड़ित मैदानों में खेती 
  • फसल की कटाई 
  • धुलाई 
  • फुहार द्वारा सुखाई 
  • पीसकर पाउडर बनाया जाना 
  • फिर , पाउडर को टैबलेट का रूप देना 
और अन्ततः इसकी बेहद सुरक्षित तरीके से पैकिंग ....
ये पूरा व्यवस्था - क्रम Aplomb Spirulina की शुद्धता आश्वासित करता है .
इसकी उत्पत्ति में प्रयुक्त जल में उपस्थित churninga इसमें क्लोरोफिल की उत्पत्ति में सहायक होते हैं
और , सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाश संशलेश्हड़ की क्रिया Spiriluna की वृद्धी में सहायक  है .
इसमें उपस्थित प्रोटीन , कार्बोहाइड्रेट , फैट , मौश्चराइजर , विटामिन्स , बीटा - कैरोटीन , xanthophyll, chlorophyll, phycocynin और आयरन का पर्याप्त सम्मिलन बेहतर खान - पान के बावजूद शारीर के अधूरे ( poshad) को दूर करता है .
इसका नियमित प्रयोग acidity को दूर करके पाचन - शक्ति को तो बढाता ही है
साथ ही metabolic process में भी वृद्धी करता है .
कभी - कभी स्वस्थ खान - पान और सही दिनचर्या के बावजूद हमें कुछ ऐसी भयावह बिमारियों के प्रकोप का सामना करना पड़ता है जिसके वर्षों के इलाज के बावजूद भी उत्तम स्वास्थ्य की पुनः प्राप्ति की कोई गारेंटी नहीं ....
कैंसर उन्हीं असाध्य बिमारियों में से एक है .
शारीरिक स्वास्थ्य के लिए एक वरदान स्वरूप Aplomb Spirulina शारीर में कैंसर युक्त कोशिकाओं की बढ़त को रोकता है .
इसके नियमित प्रयोग से circulatory system में आने वाली सभी समस्याएं लगभग न के बराबर रह जाती हैं .
इसके प्रयोग से ( avshoshad ) की दर भी बढती है .
पेट में होने वाली जलन की यह राम्बाड़ औषधि है क्योंकि यह antioxidents का एक अच्छा क्ष्रोत है .
इसके सभी अद्वित्तीय गुड़ों के अतिरिक्त इसकी एक दुर्लभ विशेषता कि यह सभी उम्र के व्यक्तियों के लिए समान रूप से लाभकारी है .
इसका यह गुड़ इसे और भी अधिक उपयोगी और कारगर सिद्ध करता है।
उचित आहार और संतुलित जीवन - शैली के बावजूद हमारा बीमारियों से सामना ....
ये एक बेहद निराशापूर्ण स्थिति है .
पर यह एक दुखद सत्य है कि आज के समय में यह स्थिति एक आम बात हो गई है .
जरुरत अब जिन्दगी के पुराने ढर्रे को छोड़ कुछ नए बदलाव लाने की है
जरुरत अब बीमारियों के समक्ष घुटने टेकने के बजाए उन्हें खुद के करीब भी न फटकने देने की है .
जरुरत अब एक सही आदत अपनाने की है .
जरुरत Aplomb Spirulina का सेवन अपनी दिनचर्या का एक हिस्सा बनाने की है .
क्योंकि बीमारी से संघर्ष से बेहतर
बीमारी से बचाव है !!


Saturday, October 27, 2012

i am still in the same boat

i am still crying
but with smile..
i am still sad
but for the past..
i am still alone
but seeing people who are happy for me..
i am still shivering
but with excitement..
i am still here
but far away from the past........

Friday, October 19, 2012

किसी और का घर

मेरे दिल के हर कोने में उदासी की काई जमी हुई है
और छत मायूसियों के जालों से भरी हुई है....
एक दिन सोंचा , उम्मीद का झाड़ू उठा
इसे साफ करूँ.......
तब याद आया......
जब इस दिल के बंद किवाड़ों को पहली बार खोला था,
और तुम्हें यहाँ का मेहमान बनाया था,
तब , गल्ती कहें या नासमझी , जो भी कहें....
किवाड़ की चाभी तुम्हें ही दे बैठे थे.....
अब किसी और के घर में झाड़ू लगाने का कोई मतलब नहीं............

Monday, October 15, 2012

अब सबेरा होने को है 
रात छंटने लगी है, अब सबेरा होने को है
इस कोहरे में सूरज नहीं दिख रहा तो क्या..
पर अब सबेरा होने को है.....
 ऐ पथिक अब तू देर न कर
थाम हाथ अपनी डगर का
बढ़ा कदम एक हौसले का
रात कितनी भी लम्बी क्यों न हो
वो सबेरा रोक पाती नहीं
सूरज कितना भी अलसाया क्यों न हो
वो आकाश का आंचल छोड़ पाता नहीं
ऐ पथिक अब तू देर न कर
थाम हाथ अपनी डगर का
बढ़ा कदम एक हौसले का
तू रुकना नहीं, थमना नहीं
जबतक मंजिल न आए कहीं टिकना नहीं....
इस जीवन - डगर में कौन पूछे कि तूने क्या खोया
सब पूछें कि तूने क्या पाया
लक्ष्य दूर है , सही..
सफ़र मुश्किलों भरा , सही..
मगर ,  ऐ पथिक अब तू देर न कर
खोने - पाने के उत्तर की परवाह भी न कर
पर  खुद से नज़र कभी न चुरा
खुद को बता कि तूने वो पाया जो पाने आया था?
ये न कह कि तूने क्या खोया....
क्योंकि कोई न पूछे कि तूने क्या खोया
सब पूछें की तूने क्या पाया....
सफ़र मुश्किलों भरा
साथी सर्प-डंक सा..
 ऐ पथिक तू अकेला ही चल
तू मालिक अपने मन का
तू राही अपनी डगर का
कौन जाने पत्थर में राम है या नहीं
तू विधाता अपनी किस्मत का
कर यकीं खुद पे ज़रा
हौसला कर अकेले बढ़ने का
बस साथ हो तेरे एक कदम से दूसरे कदम का
बढ़ चल ज़रा , अब रुक नहीं
ऐ पथिक अब तू देर न कर........... 




Sunday, October 7, 2012

तुम साथ हो मेरे


साथ चलो न चलो पर साथ हो तुम
मेरी ज़रूरत का सामान हो तुम
मेरे दिल को दर्द की आदत सी पड़ गई है
उस दर्द का आधार हो तुम
तीर सी चुभती नजरों की आदत पड़ गई है हमें
मेरे बदन पर फिसलती वो आवारा नज़र हो तुम
कानों में घुलते ज़हर की अब आदत है हमें
 तुम्हारे शब्दों का ज़हर हमारी ये आदत छूटने नहीं देता
ये डगमगाते कदम संभलते ही नहीं
क्योंकि हर कदम पर इन्हें तुम्हारे धोखे की आदत जो हो गई है
कल रात मैंने पुरानी यादों की पिटारी खोली थी
उसमें एक लम्हा भी खुशी का न मिला
क्योंकि उस पिटारी का हर लम्हा तेरे संग जिया था मैंने.......

Monday, October 1, 2012

पिछले साल की बारिश

कल रात मेरे आँगन में इस साल का पहला सावन बरसा 
पर हम तो पिछले साल के सावन से इस कदर भीगे थे 
कि कल रात घंटों खड़े रहे आँगन में 
पर ये सावन भीगे हुए को क्या भिगोय.....
तन भीगा है और मन भी....
इस बारिश में चलती ठंडी हवा के मेरे बदन को 
छूने पर पिछले साल का ही पानी टपकता है..
बदन में पिछले साल की  ही सिहरन है..
मन में वही गुदगुदाहट है..
तुम्हारी छवि याद कर आँखों में अब भी वही शर्म है..
मेरी उँगलियाँ अब भी ठंड से उसी तरह काँप रही हैं..
बालों की उलझी लटों को मैंने अब तक नहीं सुलझाया है..
आँचल अभी भी उसी तरह मेरे सीने से लिपटा हुआ है..
पाँव में लगी मिट्टी से अब भी फिसलने का डर लग रहा है..
मेरे माथे की रोली धुलकर नाक और गालों को लाल कर चुकी है..
कल मैंने गालों को छुआ तो हथेलियाँ लाल हो गईं....
वैसे तो कल एक बरस बीत गया 
पर हम अब भी तुम्हारा हाथ थामे सावन की बौछारों में भीगते 
तुम्हारे साथ खड़े हैं............

Saturday, September 15, 2012

Diary is the best option of a friend, a lover, a comrade or of an intimate soul mate. what if, it doesn't support you verbally. what if, it doesn't hug you when you feel lonely. what if, it doesn't kiss you back when you kiss it. what if, it doesn't wipe your tears when you cry. 
it serves itself in front of you to express freely what you actually think without any manipulation or decoration of your thoughts. 
it opens itself when you badly need someone....


वो सुनती  रही 

हम बस कहते रहे 
और मेरी डायरी सुनती रही 
न कुछ कहा , न कुछ पूछा 
न उसकी जबान पर कोई सवाल था 
और , न उसकी आँखों में .. 
न उसकी तनी हुई भौहों ने 
किसी बात पर आपत्ति जताई 
न उसने मेरा हाथ थामकर 
मुझे दिलासा ही दी ..
उसका मन मेरी बातों से भीगता रहा 
और तन मेरी आँखों के पानी से ..
हम बस कहते रहे ,
और वो सुनती रही  ....

Thursday, September 13, 2012

खुद को छिपाती रही


मेरे आंचल के धागों की आंड से दिखतीं , मुझे ढूढती नजरें 

उन नजरों की रफ़्तार से भी तेज रफ़्तार से भागने की मेरी कोशिश 
कोई देख न ले , कोई ढूंढ़ न ले 
कोई भांप न ले कि हूँ मैं यहीं
मैं छिपती रही , खुद को छिपाती रही 
कहते हैं कोशिशें कभी ज़ाया नहीं जातीं 
पर मुझे वो ठिकाना ही न मिला जहाँ
मैं खुद को छिपा पाती!!

Wednesday, September 12, 2012

mera bharosa..

mera bharosa
samandar ki gahraiyon me utarne lagi hu main
par mere haath us tinke ko chodte hi nahi
jiska sahara hai mujhe, ki,
shayad main paar lag jaun
paani ke ye hilore mujhe dubone ki purjor koshish me hain
aur main is koshish me hu, ki,
kahi us tinke par mera bharosa in hiloro me na doob jai.........

ek mulakat raat se..

chal aaj 'raat' se milkar aate hain..
kuch apni kahkar aate hain..
kuch uski sunkar aate hain..
din ki roshni se kai raaz chupae hain..
vo raaz use batlaakar aate hain..
raste me 'shaam' milegi..
vo rokegi, kuch tokegi..
baaton baaton me vo puchegi..
har raaz ke panne paltegi..
maathe ki shikan me chipa lenge vo raaz..
chehre ki jhurriyon ke biich guma denge vo raaz..
hatheliyon ke lifafon me band kar denge vo raaz..
jald hi vida le 'shaam' se, aage badhna hai..
aaj ki is mulakat me mujhe bahot kuch kahna hai....

ajnabi..

अजनबी 
हर बार मुझे अजनबी से लगते हो तुम
परिचित हो पर अपरिचित की तरह मिलते हो तुम
मेरी रूह को महसूस होते हो तुम
फिर क्यों दिल की सरहदों से दूर लगते हो तुम
मेरे जीवन का साहिल हो तुम
फिर क्यों समन्दर की गहराई लगते हो तुम

इतने करीब होकर भी क्यों दूर लगते हो तुम 
मेरी जिन्दगी का हर जवाब हो तुम
फिर क्यों एक सवाल लगते हो तुम....

Thursday, September 6, 2012

fir akele ho gae hum

 फिर अकेले हो गए हम 
साथ चलने को तो कई मुसाफिर चलते हैं संग 

पर राह के मोड़ पर
मेरे हाथों से अपने हाथों की पकड़ ढीली कर
बस 'अलविदा ' कहने के अल्फाज
रह जाते हैं शेष उनकी जबां पर
मोड़ के  आगे का रास्ता
मेरी तनहाई के साथ के संग शुरू होता है
कुछ दूर जाकर तनहाई मुस्कुरा के अलविदा कहती है
और , हाथ बढ़ता है कई मुसाफिरों का मेरे हाथों की ओर
पर अगला मोड़ आते ही
उनके अलविदा कहने का वक्त हो जाता है
और तनहाई से फिर मुलाकात की घड़ी
नज्दीक आ जाती है......