Thursday, December 6, 2012

मेरा घर

कई बरस पहले एक मकान खरीदा था ,
जिसे तेरे संग मिलकर एक घर बनाया था .
उस घर की  ठंढी फर्श धरती बनी मेरी और छत आकाश ..
उसकी चार दीवारों में दुनिया बसी मेरी ....
घर के लोगों के सिवाय ,
बस छत के पंछियों संग मेल था मेरा .
अब भी सब कुछ पहले जैसा ही है
सब कुछ उतना ही पूरा
पर कुछ तो है जो जा रहा है मेरे हाथों से ,
निकल रहा है मेरे घरौंदे से ....
तुम अपनी दुनिया में खो रहे हो कहीं ,
और , तुमसे और मुझसे बने घर के नन्हें सदस्य ,
अपने नन्हें संसार में लीन हैं .
छत के पंछी भी दाना चुग के उड़ जाते ,
कोई न रुकता मेरे पास
मैं देर तक देखती उन्हें ,
कि कोई तो कभी लौट आये ..
पर ..पर कुछ देर बाद मैं
खाली बर्तन उठा नीचे आ जाती ....
ऐसा लगता है जैसे कभी - कभी
ये फर्श कहती है मुझसे
ये अब छत की सुरक्षा नही चाहती .
मेरी क्यारी के पौधे भी बागीचे में उगना चाहते हैं .
मेरे घर में पली मछलियों के चेहरे भी अब मुझे मुरझाये से लगते हैं .
मेरे घर के मंदिर की मूर्तियाँ भी कह रही हैं जैसे ....
दे दो मुझे खुला आकाश,
मेरा स्वरूप अब इन ईटों की दीवारों में समाता नहीं ..
बचपन में माँ ने एक बात कही थी
कि हर पंछी अपने घोंसले को बड़ी जान से सम्भालता है
पर एक दिन वो उसे छोड़ उड़ जाता है....
मेरे घर के घोंसले का भी हर पंछी उड़ने की तैयारी में है
बस मुझे छोड़ !! 

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