Saturday, December 8, 2012

एक चींटी

एक चींटी थी नन्ही सी
रेंग रही थी मेरी किताब पर
नज़र गई जब उसपे ,
वो बेखबर थी मुझसे
एक नई डगर बनाती उस कोरे कागज़ पर
बस घूम रही थी पन्ने पर .
मैं रुकी हुई थी कि कब वो जाय ,
कब मैं अपना वाक्य लिखूँ
पर उसकी गति की कोई दिशा न थी .
लगता था जैसे जहाँ दिल करता
वहीं पग धरकर मोड़ती थी वो डगर को
देखते - देखते उसे जब थकीं मेरी आँखें
मेरे उतावलेपन ने मेरे धैर्य को तोड़ा
मैंने उस चींटी को ज़ोर की फूँक के संग
हट जाने का सन्देश दिया ,
पर वो जड़ हुई अपनी जगह पर .
थम गये थे क़दम उसके
अब न उसकी आँखें एक नई डगर का नक्शा बना रही थीं ,
न उसके शरीर की ऊर्जा उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही थी .
पर कुछ पल बाद , उसने फिर अपने पग बढ़ा दिये थे आगे,
खोजने को एक नई डगर ..
कुछ हैरान हुई मैं उसकी हिम्मत देख
कुछ पल ठहरी भी मैं

अब मेरा उतावलापन बन गया था मेरी क्रूरता
मेरी ज़ोर की फूँक ने उड़ा दिया उस चींटी को
दूर कहीं मेरी किताब से ..
मेरे वाक्य के अधूरे शब्द मेरी कलम की स्याही का इन्तजार कर रहे थे
पर न जाने क्यों अब जड़ हो गई थी कलम मेरे हाथों में
निहार रही थी मैं उस चींटी के बिन छपे पैरों के निशानों को
एक पल को लगा जैसे वो कहने आई थी मुझसे
कि वो अन्जान नहीं थी मेरी फूँक के वेग से ..
वो अन्जान नहीं थी अपने अन्त से ..
पर अगर अपनी हिम्मत से जिन्दगी के कुछ पल मिल जाएँ ,
जिन्हें दिमाग नहीं दिल से जिएँ,
उसकी कीमत बाकी की ज़िन्दगी ही सही ..
ये क़ीमत कुछ ज़्यादा नहीं ..
मुझे हैरत हुई ..
मैं आज तक इस चींटी इतनी अमीर ही न हुई ,
जो ये क़ीमत चुका पाती
और जिन्दगी के कुछ पल दिमाग के नियमों की किताब बंद कर
दिल की मनमौजी डगर पे चल के जी पाती .... 

 

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