Sunday, November 4, 2012

फिर अधूरे रह गए हम

फिर अधूरे रह गए हम ..
 तुम थे तो पूरे होने लगे थे हम
याद है हमें अब भी ,
अँधेरी गलियों में ढूंढ़ रहे थे हम खुद को ..
गली - दर - गली भटक रहे थे हम .
कई बार ठोकर लगी , कई बार गिरने से भी बचे
पर रुकते कैसे , ढूंढ़ जो रहे थे खुद को .....
एक मोड़ पे हमें तुम दिखे
एक मस्त चाल से चलते तुम नजदीक आए ,
हमें पता भी न चला और तुम साथ चलने लगे .....
जब रुक कर देखा तो तुम साथ मेरे थे .
एक पल सोंचा , साथी हो या हमराही ..
न साथी हो न हमराही ..
बस संग - संग आए दो - चार कदम ..
तुम पथिक हो अपनी राह के ,
और , हम भटके खुद से ....
न साथ सफ़र सम्भव है
न कोई मिलन सम्भव है
फिर ये कैसा असमंजस .......
जब इतनी है दूरी
तो संग चले क्यों थे ..
पूरा किया था हमें बस छोड़ने को अधूरा ..
इस दिवा - स्वप्न में जीने देते
कि , साथी भी हो और हमराही भी ....
एक बात कहें ! जब संग चले तुम मेरे ,
तब भी खोज रहे थे हम खुद को
पर पता था कि अब कोई दरकार नहीं इसकी ....
पर जब एक गली में खुद को तनहा पाया ,
तब हर भरम टूटा
और निगाहों की रफ़्तार तेज हुई ,
तलाश में खुद की ..
आँखों में तलाश थी
जबां पे पुकार थी
और मन में चित्कार थी
कि फिर अधूरे रह गए हम !!



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