Wednesday, September 11, 2013

मुझे मुझको देदो

मुझे कुछ सादे पन्ने देदो
जिन्हें मैं वो सुना सकूँ जो मैंने हमेंशा कहना चाहा..
मुझे थोड़ा सा आकाश देदो
जिसे देख मैं उड़ने की उम्मीद कभी न मारूं..
मुझे कुछ रातें देदो
जिनके अँधेरे में मैं खुद को एक बार देखने की हिम्मत कर सकूँ
मुझे घर का एक खाली कोना देदो
जहाँ मैं खुद से पूछ सकूँ कि मैं , मैं ही हूँ
 या वो हो गई हूँ , जो ये दुनिया मुझे बनाना चाहती है
मुझे एक बार किसी मंदिर में जाने को देदो
ताकि मैं उस विधाता से पूछ सकूँ कि विधाता अगर वो है,
तो उसने एक औरत का विधाता बनने का अधिकार औरों को क्यों दे दिया
मुझे मेरी ही ज़िन्दगी की कुछ घड़ियाँ दे दो ,
कि  उन्हें मैंने किस तरह खर्च किया ,
इसका मुझे किसी को हिसाब न देना पड़े
कुछ पल के लिये ही सही , मुझे मुझको देदो !!

Monday, September 9, 2013

एक बार चलो संग मेरे

 एक बार चलो संग मेरे ,
मिलाना है तुमको किसी से ..
पर एक बात मानना मेरी ….
अपनी आँखों में काजल लगा के न आना
उसे दिखाऊंगा तेरी आँखों की ये सूजन ..
अपनी ओढ़नी कहीं राह में ही छोड़ देना ..
उसे दिखाऊंगा तेरा ये पीला पड़ता सफ़ेद रंग ..
सुनो !! हो सके तो रात में आना ,
क्योंकि , मैं जानता हूँ , दिन की रोशनी में
तुम उसे अपने होठों को छूने न दोगी
और मुस्कान फिर तुमसे रूठ के चली जायेगी।
बड़ी मिन्नतों के बाद वो मानी है तुमसे मिलने को..
कसम है तुम्हे मेरी , इस बार मना न करना !!

Thursday, August 29, 2013

तुम कभी मेरी जुबां पर न आ जाओ

तुम्हें कागज़ के पन्नों में समेटने की कोशिश है
कलम की स्याही में छुपाने का अरमान है तुमको

इन शब्दों के जाल में तुमको छुपाना है
यादों के घर में तुम्हें रखेंगे कहीं
लेकिन डर है कि कहीं तुम कोई अलफ़ाज़ बनके
मेरी जुबां पे न आ जाओ !!



चुपचाप सी ये रात

रात के बसेरे को हटाती रोशनी की किरड़े …
अँधेरे की चुप्पी को तोड़ती हर ओर की ये चहचआहट …
रह रह कर कह रहे थे मेरे कुछ ठहरते से कदम …
कि मैं रात की इस खामोश हार में शामिल हो जाऊं ,
या दिन के विजय - आगमन का स्वागत करूँ !!


Wednesday, August 21, 2013

जब मिले तुम

स्वप्न - देश में मिले थे तुम
जब छूकर देखा तो बिखर गये
मेरे सपनों का वहम - जाल थे
या ताश का खड़ा मकान थे….

Monday, August 19, 2013

थक गई हूँ मैं

कहीं कोई साहिल नहीं ,
कोई मंज़िल नहीं अब मेरी
कोई अंत नहीं इस राह का
कोई सुबह नहीं इस रात की
पूछते हैं पैर मेरे, कि कौन सा होगा आखरी क़दम.…
कैसे कहूँ, कि एक बहरी डगर पर चल पड़ी हूँ मैं,
जो ये सुनती ही नहीं कि अब थक गई हूँ मैं !!

Wednesday, August 14, 2013

विडम्बना

लक्ष्य है लक्ष्यहीन सा
द्रश्य है अद्रश्य सा
पंख हैं कटे हुये
उड़ान है थमी हुई
वक्त है रुका हुआ
हर मार्ग अवरुद्ध है
मगर, अश्रु निर्बाध्य हैं
अंत गतिशील है
विडम्बना अजीब है
तू ही तो कर्डधार था,
जो आज विनाश - रूप है !