Sunday, November 16, 2014

कौन है बेहतर लेखक !! ( कहानी )

मेरी 14 वर्षीय बेटी सुगंधा आज मुझसे इस बात पे नाराज़ होके चली गई कि उसके लेखक पिता के एक विवादस्पद इंटरव्यू में महिला - लेखकों के प्रति उनकी असंवेदनशील टिप्पड़ी पर टीवी छिड़े विवाद को देख मैंने उसके पिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा और जब सुगंधा गुस्से में अपने पिता के खिलाफ बरस रही थी  उसकी बातों में अपनी सहमति नहीं जाहिर की।  सुगंधा एक बहुत ही होनहार और आज्ञाकारी बच्ची है।  मेरी हर बात आँख मूँद के मानती है सिवाय उन बातों के जो मैं उसके पिता के पक्ष में कहती हूँ।  उसे अपने पिता से कोई द्वेश नहीं पर अब उसका 14 वर्षीय दिमाग ये समझने लगा है कि वो लड़की है और लड़कों से अलग है मगर उनसे कम नहीं है।  अगर कोई लड़कियों को लड़कों से काम आँकता है तो ये उसकी क्षमताओं का भी काम आंकलन है और जब यह उसी के पिता द्वारा किया जाय और उसकी माँ इसमें अपनी मूक सहमति दे तो उसका क्रोध स्वाभाविक था और आज सुबह भी यही कुछ हुआ था जो मुझे अपनी मूक सहमति देने पर बाध्य करता था और सुगंधा का मेरे प्रति रोष को बढ़ता था।
कहने को तो बात हमारी पारिवारिक सीमाओं के बहार की है पर इसका असर घर के भीतर के आपसी रिश्तों को हिलाने के लिए काफी था।  सुगंधा अपने पिता के सबसे बड़े आलोचकों में से एक हो चुकी थी।
सुबोध मेरे पति, अंग्रेजी साहित्य के जाने माने लेखक हैं , जिनसे मेरी मुलाकात पहली बार तब हुई थी जब मेरे एक हिन्दी दैनिक में कार्यकाल के दौरान मुझे सुबोध का इंटरव्यू लेने का मौका मिला। मुझे अब भी याद है मैंने उनसे प्रश्न किया था कि आखिर वो कौन सी खास बात है जो उन्हें एक सफल लेखक बनाती है।  इसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि उनका पुरुष होना कई कारडों में से एक कारड है जो उन्हें एक अच्छा लेखक बनाता है।  मैं दंग रह गई थी कि कितनी हिम्मत है इस आदमी में जो मेरे मुँह पे ये बात कहने की ढिठाई कर रहा है।  उनकी इस बेबाकी ने बहुत लोगों पर असर किया।  असर मुझ पर भी हुआ और ये असर 7 महीने बाद और ज्यादा ही हुआ जब मुझे मेरी बुआ से ये पता चला की जिससे मेरी शादी तय हुई है वो यही औरत को हास - परिहास के विषय से ज्यादा कुछ न समझने वाले अंग्रेजी साहित्य के बहुत बड़े लेखक सुबोध सहाय हैं।  सुबोध सहाय के साथ नया रिश्ता जुड़ने के साथ मेरे पुराने रिश्ते पीछे रह गए।  मेरी इस 17 साल की शादी में मैं एक पल भी वो नहीं याद कर पाऊँगी जब मुझे ये लगा हो कि सुबोध एक अच्छे पति नहीं हैं या मैं मेरे माँ - बाप के घर में सुबोध के घर से ज्यादा सुखी थी।
सुबोध की महिलाओं के विषय में कही गई हर बात के विषय में मैं बौत सोंचती हूँ पर आजतक इस निष्कर्ष पर नहीं आ सकी कि सुबोध के विचार वास्तव में सही हैं या गलत।  वो हमेंशा कहते हैं मुख्यतः औरतें बुद्धिमान नहीं होतीं।  अरे बुद्धिमान क्या ख़ाक बनेंगी वो जब उन्हें चूल्हा - चौका के आगे बढ़ने ही नहीं दिया जायेगा। चलो मानती हूँ कि अब लड़कियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है पर किताबी ज्ञान से तो कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता और लड़कियों के पास ' प्रैक्टिकल नॉलेज ' का कोई श्रोत नहीं।  रात में जब घर में सब टीवी पर समाचार देखते हैं तब वो रसोई में खाना बनाती हैं।

Monday, September 15, 2014

बचपन

कल मेरा बचपन एक बार फिरसे मिला मुझसे
बढ़ी उम्र ने समझदारी सौगात में दी
लेकिन मासूमियत मुझसे वापस ले ली...
चेहरे पे खूबसूरती ने जगह ली ,
पर भोलापन कहीं खो गया …
बचपन की शरारतों को मेरी नासमझी के नाम पर माफ़ी मिली…
बचपन में जो बहुत ख़ास था ,
कल वो बड़ा साधाराड सा लगा…
मेरा बचपन कल बस कुछ क़दमों की दूरी पर था ,
पर अब उसका हाथ पकड़ कर गलियों में घूम आना मुमकिन नहीं था ,
क्योंकि अब दुनिया के बही - खाते में मेरे हर कदम का हिसाब जो रखा जाने लगा है !!

Thursday, July 17, 2014

you are everything to me

when I open my eyes in the morning
you are the first person, who comes in my mind
when my fingers run on my skin
I feel your touch
When I see myself in the mirror
I feel like you are staring at me
and automatically my cheeks go red
when I close my eyes
I feel your closeness
Everyone says you are not with me
But I dont feel you are away from me
I dont need to rethink to call you 'my soul'
If you are everything to me
then why you are so painful to me !!


Sunday, July 6, 2014

Lady character of a graphic novel ( name is yet to decide )

वो कौन सा फूल होता है जो छड़भंगुर होता है, दिखने में तो बड़ा प्यारा सा होता है पर हवा के झोंके से वो तितर - बितर हो जाता है, नाम नहीं पता उसका।  तकदीर ने कभी इतनी luxury ही नहीं दी की फूल - पत्तियों के नाम समझने का मौका मिलता।  

Saturday, June 21, 2014

हमें भी अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया है

तेरी न में भी हाँ समझना हमें अब आ गया है
तेरे संग होकर हमें हर गम भुलाना आ गया है
जिन्दगी तो बहुत बीती तुम्हारे बिन
अब हर लम्हा तुम्हारे संग बिताना आ गया है
तेरे होने से खुशियाँ ढूंढती हैं अब मेरा पता
मुस्कुराहटों ने घर बनाया है चौखट पे मेरी
तेरी महक मंदिर के धुयें सी पाक है

मेरे बीते दिनों ने कई मौसम हैं देखे
तेरे आने से जीवन में अब बहारों का मौसम है
तेरी तारीफों को शब्दों में पिरोऊँ
या खुद को बिछा दूँ राहों में तेरी


इस सूने जहाँ में बस साथ है तेरा
अब हर पल अहसास है तेरा
तेरे रंग में रंगा है हर सपना मेरा 

तेरे अक्स में पाया है मैंने खुद को
कितना महफूज़ हूँ मैं तेरी इन आँखों में
तेरे होठों की गर्मी में मेरी ये सर्द रातें गुजरती हैं
मेरी साँसों में अब हर पल तुम हो बसी
हमें भी अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया है

Friday, June 6, 2014

मेरे वो पल

अब वक्त ठहरता नहीं मेरे नज़दीक आकर
जाने क्यों नज़रें चुराने लगा है मुझसे
कई बार इसको मिन्नतों से रोका
कई बार तो इसे ज़िद करके भी रोकना चाहा
पर ये तो मिलता है ऐसे जैसे मुझे पहचानता ही नहीं
मैंने इससे अपने ही तो लम्हे वापस मांगे थे
पर ऐसा लगता है जैसे मेरे वो पल
किसी और को दे आया है ये...
उन लम्हों में मेरी यादें हैं,
उनकी एक - एक पर्त में हज़ारों साँसें हैं,
जिनमें किसी का नाम जान बनके बसा था...
हालातों ने उन लम्हों को जला दिया,
और वक्त ने मुझे उनकी राख भी न लौटाई.....
पर लगता है जैसे कि कुछ अब भी बाकी है 
वरना मेरी बेचैनियाँ यूँ इस तरह उन लम्हों को न पुकारतीं
और ये वक्त मुझसे यूँ इस तरह बेरुखाई न करता !!

Thursday, May 15, 2014

निन्ना रानी

निन्ना रानी आ जा
मुझको तू सुला जा
टिक - टिक करती घड़ी निहारूँ
तेरा हाथ पकड़ के तुझे पुकारूँ
अब तो तू आ जा...
भोर - पहर तक ये बादल गरजें
मेरे नन्हें मन को डरायें
तू आके कस ले मुझको अपनी बाहों में
कि फिर न देखूँ मैं चाँद के दाग कोई.…
तू लोरी गाके सुनाती है
तू माँ बनके मुझको सहलाती है
तू कागज़ की एक नांव सही
पर रात की गलियों में साथ निभा
सुबहा तक मुझको पहुंचाती है
तेरे आँचल के नीचे बैठ
मैं भूलूँ दिन भर की थकान
निन्ना रानी अब तो आ जा…
मैं न चाहूँ कोई राजकुमार
तू बस सपनों की सौगात संग में लाये…
 मैं न चाहूँ तू अपने संग
अगले दिन की खुशियों की झलकी लाये…
तू बस आ जा ठण्डी हवा के झोंके लेके,
जिन्हें तू मेरे नंगे पैरों पे उढ़ा जा…
निन्ना रानी आ जा
मुझको तू सुला जा ……

Monday, May 5, 2014

तेरी साँसें बन जाऊँ

इंतज़ार है उस दिन का
जब कोई ढूँढ़ेगा मुझे
तो पायेगा तुझमें,
जब कोई देखेगा मुझे
तो नज़र आओगे तुम
वो दिन एक बार तो आये,
जब मैं होके भी न रहूँ,
जब मैं ढूंढने से भी न मिलूँ,
जब तैयारियाँ करूँ मैं उस जश्न की
जो मेरे गुम हो जाने के नाम पे मने
जब मेरे बिना मेरे अपनों का काफ़िला चले
जब मैं माटी की एक बुत नहीं
तुझमें पहुँचती तेरी साँसें बन जाऊँ !!

Thursday, May 1, 2014

ये वक्त

अपने कंधों पे यादों की गठरी लिये
बढ़ रहा है ये वक्त एक अनजान डगर की ओर
हल्के से मेरा हाथ थामे, मेरे कदमों को राह दिखाता
चल रहा है संग - संग मेरे
हर ओर देखता , न जाने क्या सोचता
कभी - कभी गठरी से कुछ यादें निकाल मुझे दीखाता ,
मुस्कुराता, कुछ कहता भी
अपने आँसू मुझसे छिपाता पर रुकता नहीं,
और मैं रुक जाऊँ न कहीं,
इसलिये मेरे हाथ और मजबूती से थाम लेता !!

Thursday, January 9, 2014

मेरी जिंदगी की ये रात

जाने वो कौन सी सुबह है
जिसके इंतज़ार में मेरी जिंदगी की ये रात है ....
ये रात है कैसी जिसका रंग काला नहीं
इसकी रोशनी में चौंधियाने लगी हैं मेरी आँखें
इसके स्वाभाव में खामोशी नहीं
आवाज़ें इसकी बहरा कर रही हैं मुझे
घड़ी की सुई के संग बढ़ तो रही है ये
पर न जाने क्यों सुबह से नहीं मिल रही है ये रात....