Friday, December 28, 2012

मेरी कल्पना

कल्पनाओं के पंखों से उड़ जाती मैं
हर एक देश.....
जी कर आती हर सपने को  .
मिलकर आती हर अपने को .
वहाँ कोई नियम नहीं और कोई भँवर नहीं ..
बस पलकें बंद करने की देरी  ..
बस सच से हाथ छुड़ाने की देरी ..
वो झूठ सही पर सच सा है .
वो वहम सही पर कुछ तो है .
कल्पना की हर सीढ़ी खोखली ,
कोई यथार्थ नहीं ,
पर सच का कोई बोझ भी नहीं ....
 कल्पना के अक्षर सफ़ेद स्याही से लिखे ,
जिनका कोई वजूद नहीं ,
पर उन्हें किसी के पढ़ लेने का डर भी नहीं ....
कल्पना निरीह है पर सर्वशक्तिमान है .
कल्पना निर्जीव है पर सपनों का जीवन्त रूप है .
कल्पना तू मात्र कल्पना है ,
पर छड़ भर ही सही हर सच से भली है !! 

Saturday, December 22, 2012

मुझे औरत न बनाना

ऐ खुदा ,
तू मुझे तारा बना दे ,
कि दूर गगन से देखूँ तेरी इस सुन्दर दुनिया को ..
तू मुझे चींटी बना दे ,
कि चलते - चलते चढ़ जाऊं मैं पर्वत पर ..
तू मुझे पंछियों से पंख दे दे ,
कि उड़ जाऊं मैं दूर कहीं ..
तू मुझे बादल बना दे ,
कि मैं दिल खोल के बरसूँ ..
तू मुझे डाल से गिरा पत्ता बना दे ,
कि मैं उड़ जाऊं कहीं हवा के झोंकों संग ..
तू मुझे नदिया की धार बना दे ,
कि मैं बहती ही जाऊं समंदर से मिलने की खातिर ..
कुछ न कर सके अगर तू मेरे लिये
तो मुझे रास्ते का पत्थर ही बना दे ,
कि हर ठोकर के साथ रास्ते के एक नये कोने से जा मिलूँ ..
पर रहम करना मुझपर
मुझे औरत न बनाना ....
ऐ खुदा ,
वैसे एक बात तो बता ..
तेरा वक्त फालतू है क्या
जो तू औरत बना के उसे ज़ाया करता है .
अगर है तो कभी उसे इतना बेबस बनाने की
वजह तो उसे ज़रूर बताना ....
कि आँखें तो हैं पर नज़रें झुकी हुई सी ..
आवाज़ तो है पर सहमी हुई सी ..
होंठ तो हैं पर एक नन्ही सी मुस्कान को भी तरसे ..
गर्दन तो है पर झुकी हुई सी ..
हाथ तो हैं पर खुद की हिफाज़त में असक्षम ..
क्या तू भी स्वार्थी है ,
जो अपनी स्रस्टि को पूरा करने की खातिर
रच दी है औरत ,
जो गला के खुद को देती है पूर्णता तेरी स्रस्टि को .
अगर ऐसी ही औरत बनानी है तुझे , तो ,
उसकी आँखों में कोई सपना न देना ..
उसे ये वहम न देना कि वो भी औरों के बराबर है ....
 

Saturday, December 15, 2012

बड़ी दीदी वाली बिग स्माइल

तुम्हारी उलझी - पुलझी चोटी के बिखरे बालों सी तुम
कब रोती हो , कब हँसती हो क्या जानूँ .
तुम्हारी शर्ट के बंद ऊँचे - नीचे बटन सी तुम
कब रूठती हो , कब मानती हो क्या जानूँ .
आँखों में हरदम आँसू हैं , गाल हमेंशा फूले हैं .
कब खुश होती हो और कब गुस्सा ....क्या जानूँ .
तुम्हारी ऊँची - नीची स्कर्ट सी तुम
कब संग चलती हो और कब पीछे ....क्या जानूँ .
बिस्तर का कोना छीना मुझसे ,
मम्मी से भी दूर किया ,
घर में होने वाली हर ज़िद पर अपना पहला अधिकार किया .
पापा भी मुझसे पहले गोद में तुमको लेते हैं .
भैया का तुम अब नया खिलौना हो ,
मोहल्ले की अन्टियों की चर्चा हो .
मेरी भी सहेलियों को तुम प्यारी हो .
सबसे ज्यादा लड्डू तुमको मिलते हैं .
कपड़े भी हर बार तुम्हारे ही नये बनते हैं .
मेरी किताबें देख मुंह बिदकती हो
बस अपने रंगों में खो जाती हो .
हर रोज़ सोंचती मैं ....
तुम न होती तो क्या होता ,
जो भी मुझसे छिना , सब मेरा होता ..
पर आज जब तुमने मुझसे पीछे नहीं ,
मेरे संग चलने की कोशिश की ..
हाथ पकड़ कर धीरे से दीदी कहने की कोशिश की ..
एक बार लगा जैसे उन ठंढी उँगलियों ने भी कुछ कहा मुझसे .
मुड़कर देखा तुमको पर तुम तो चुप थी ,
हल्का सा मुस्काई , फिर से एक बार कहा मुझको दीदी .
हम - तुम स्कूल पहुँच चुके थे .
तुम अपनी क्लास की लाइन में थी और मैं अपनी ....
इंटरवल की घंटी बजते ही ,
मेरी क्लास के दरवाज़े पर थी तुम .
मैंने घूर के देखा तुमको .
तुम चुपचाप मेरी सीट पे आई ,
धीरे से मुट्ठी आगे की ..
खोल के देखा उसको मैंने ,
उसमें अचार की एक फांकी थी .
मम्मी ने तुमको नहीं दिया , मेरा अचार तुम लेलो दीदी ....
तुम्हारे छोटे से भोंदू चेहरे पे एक छोटी सी मुस्कान थी
और मेरे चेहरे पर 'बड़ी दीदी वाली बिग स्माइल' थी ..

Saturday, December 8, 2012

एक चींटी

एक चींटी थी नन्ही सी
रेंग रही थी मेरी किताब पर
नज़र गई जब उसपे ,
वो बेखबर थी मुझसे
एक नई डगर बनाती उस कोरे कागज़ पर
बस घूम रही थी पन्ने पर .
मैं रुकी हुई थी कि कब वो जाय ,
कब मैं अपना वाक्य लिखूँ
पर उसकी गति की कोई दिशा न थी .
लगता था जैसे जहाँ दिल करता
वहीं पग धरकर मोड़ती थी वो डगर को
देखते - देखते उसे जब थकीं मेरी आँखें
मेरे उतावलेपन ने मेरे धैर्य को तोड़ा
मैंने उस चींटी को ज़ोर की फूँक के संग
हट जाने का सन्देश दिया ,
पर वो जड़ हुई अपनी जगह पर .
थम गये थे क़दम उसके
अब न उसकी आँखें एक नई डगर का नक्शा बना रही थीं ,
न उसके शरीर की ऊर्जा उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही थी .
पर कुछ पल बाद , उसने फिर अपने पग बढ़ा दिये थे आगे,
खोजने को एक नई डगर ..
कुछ हैरान हुई मैं उसकी हिम्मत देख
कुछ पल ठहरी भी मैं

अब मेरा उतावलापन बन गया था मेरी क्रूरता
मेरी ज़ोर की फूँक ने उड़ा दिया उस चींटी को
दूर कहीं मेरी किताब से ..
मेरे वाक्य के अधूरे शब्द मेरी कलम की स्याही का इन्तजार कर रहे थे
पर न जाने क्यों अब जड़ हो गई थी कलम मेरे हाथों में
निहार रही थी मैं उस चींटी के बिन छपे पैरों के निशानों को
एक पल को लगा जैसे वो कहने आई थी मुझसे
कि वो अन्जान नहीं थी मेरी फूँक के वेग से ..
वो अन्जान नहीं थी अपने अन्त से ..
पर अगर अपनी हिम्मत से जिन्दगी के कुछ पल मिल जाएँ ,
जिन्हें दिमाग नहीं दिल से जिएँ,
उसकी कीमत बाकी की ज़िन्दगी ही सही ..
ये क़ीमत कुछ ज़्यादा नहीं ..
मुझे हैरत हुई ..
मैं आज तक इस चींटी इतनी अमीर ही न हुई ,
जो ये क़ीमत चुका पाती
और जिन्दगी के कुछ पल दिमाग के नियमों की किताब बंद कर
दिल की मनमौजी डगर पे चल के जी पाती .... 

 

Thursday, December 6, 2012

मेरा घर

कई बरस पहले एक मकान खरीदा था ,
जिसे तेरे संग मिलकर एक घर बनाया था .
उस घर की  ठंढी फर्श धरती बनी मेरी और छत आकाश ..
उसकी चार दीवारों में दुनिया बसी मेरी ....
घर के लोगों के सिवाय ,
बस छत के पंछियों संग मेल था मेरा .
अब भी सब कुछ पहले जैसा ही है
सब कुछ उतना ही पूरा
पर कुछ तो है जो जा रहा है मेरे हाथों से ,
निकल रहा है मेरे घरौंदे से ....
तुम अपनी दुनिया में खो रहे हो कहीं ,
और , तुमसे और मुझसे बने घर के नन्हें सदस्य ,
अपने नन्हें संसार में लीन हैं .
छत के पंछी भी दाना चुग के उड़ जाते ,
कोई न रुकता मेरे पास
मैं देर तक देखती उन्हें ,
कि कोई तो कभी लौट आये ..
पर ..पर कुछ देर बाद मैं
खाली बर्तन उठा नीचे आ जाती ....
ऐसा लगता है जैसे कभी - कभी
ये फर्श कहती है मुझसे
ये अब छत की सुरक्षा नही चाहती .
मेरी क्यारी के पौधे भी बागीचे में उगना चाहते हैं .
मेरे घर में पली मछलियों के चेहरे भी अब मुझे मुरझाये से लगते हैं .
मेरे घर के मंदिर की मूर्तियाँ भी कह रही हैं जैसे ....
दे दो मुझे खुला आकाश,
मेरा स्वरूप अब इन ईटों की दीवारों में समाता नहीं ..
बचपन में माँ ने एक बात कही थी
कि हर पंछी अपने घोंसले को बड़ी जान से सम्भालता है
पर एक दिन वो उसे छोड़ उड़ जाता है....
मेरे घर के घोंसले का भी हर पंछी उड़ने की तैयारी में है
बस मुझे छोड़ !!