Wednesday, January 30, 2013

अपने से लगते हैं ये सन्नाटे

सुबह की पहली धूप को टोकती हूँ मैं
पंछियों की चहचआहट को रोकती हूँ मैं
मुझे देखती नज़रों को मेरे आँचल से रोकती हूँ मैं
नन्हीं किलकारियों पर लगाये हैं पहरे मैंने
किसी के आने के इंतज़ार में मेरी चौखट पर
जलते हर दिये को बुझाया है मैंने ..
एक ऐसी कोठरी में हूँ जिसकी चाबी गुम गई है कहीं ..
न दरकार है किसी को उसे खोजने की
और न चाहत है हमें भी उसे ढूंढने की ..
अब तो इस अँधेरे से याराना सा लगता है अपना ..
तन्हाई भी अच्छी लगती है अब ..
ये मायूसियाँ सहेली लगती हैं
और ये सन्नाटे अपने से लगते हैं अब !!

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