Wednesday, January 30, 2013

अपने से लगते हैं ये सन्नाटे

सुबह की पहली धूप को टोकती हूँ मैं
पंछियों की चहचआहट को रोकती हूँ मैं
मुझे देखती नज़रों को मेरे आँचल से रोकती हूँ मैं
नन्हीं किलकारियों पर लगाये हैं पहरे मैंने
किसी के आने के इंतज़ार में मेरी चौखट पर
जलते हर दिये को बुझाया है मैंने ..
एक ऐसी कोठरी में हूँ जिसकी चाबी गुम गई है कहीं ..
न दरकार है किसी को उसे खोजने की
और न चाहत है हमें भी उसे ढूंढने की ..
अब तो इस अँधेरे से याराना सा लगता है अपना ..
तन्हाई भी अच्छी लगती है अब ..
ये मायूसियाँ सहेली लगती हैं
और ये सन्नाटे अपने से लगते हैं अब !!

रस्ते

 ये रस्ते ले जायें कहाँ, क्या पता
मुझे तो बस चलते जाना है यहाँ
ये रस्ते भी न जानें कि मेरी मंज़िल कहाँ
मैं ख़ुद भी न जानूँ कि मुझे जाना कहाँ ..
यूँ धूल उड़ाते चलना ..
गीली मिट्टी में पैरों का धंसना ..
रस्ते के पेड़ों से बातें करना ..
कभी रुकना , कभी थकना ..
कभी बीती डगर पे पैरों के निशान निहारना ..
कभी बाकी डगर को एकटक देखना ..
कभी लकड़ी की किरमिच से रस्ते की धूल पे अपना नाम लिखना ..
और कभी अपने ही पैरों से उसे मिटाना ..
कभी कहीं किनारे बैठ ,
थके हुए दिन की गोद में ऊंघाई लेते ढलते हुए सूरज को देखना ..
कभी सुबह - सवेरे ओस की बूंदों पर
बढ़ते मेरे क़दमों संग भोर के खिलखिलाते सूरज संग बतियाना ..
कभी किसी पेड़ की छाँव में बैठ ,
रस्ते के दोनों ओर के पेड़ों के धरती से छुप के ,
सबकी आँखों से बचकर आकाश की साक्षी में
उनके मिलन को देखना ..
और कभी इस रस्ते के दोनों ओर उनकी जुदाई महसूस करना ..
ये रस्ते जाते हैं कहाँ, नहीं पता
मुझे तो बस चलते जाना है यहाँ .... 

Wednesday, January 9, 2013

रह गये हो तुम मुझमें ही कहीं

कल रात अलविदा तो कह दिया तुम्हें
पर आज सुबह की धुंध में हो कहीं तुम .
वक्त की लकड़ियाँ तो जल गईं
पर कुछ यादें अभी भी सुलग रही हैं ,
उन सुलगती हुई यादों के धुएं में हो कहीं तुम .
तेरे संग जिये लम्हे राख बन चुके हैं .
वो रातें कोयला बन रही हैं अब .
हमारी मुलाकातों की आग बुझने लगी है
पर लग रहा है जैसे मैं ख़ुद जलने लगी हूँ अब .
अलविदा तो कह दिया पर मुझमें ही कहीं ठहर से गये हो तुम !!