सुबह की पहली धूप को टोकती हूँ मैं
पंछियों की चहचआहट को रोकती हूँ मैं
मुझे देखती नज़रों को मेरे आँचल से रोकती हूँ मैं
नन्हीं किलकारियों पर लगाये हैं पहरे मैंने
किसी के आने के इंतज़ार में मेरी चौखट पर
जलते हर दिये को बुझाया है मैंने ..
एक ऐसी कोठरी में हूँ जिसकी चाबी गुम गई है कहीं ..
न दरकार है किसी को उसे खोजने की
और न चाहत है हमें भी उसे ढूंढने की ..
अब तो इस अँधेरे से याराना सा लगता है अपना ..
तन्हाई भी अच्छी लगती है अब ..
ये मायूसियाँ सहेली लगती हैं
और ये सन्नाटे अपने से लगते हैं अब !!
पंछियों की चहचआहट को रोकती हूँ मैं
मुझे देखती नज़रों को मेरे आँचल से रोकती हूँ मैं
नन्हीं किलकारियों पर लगाये हैं पहरे मैंने
किसी के आने के इंतज़ार में मेरी चौखट पर
जलते हर दिये को बुझाया है मैंने ..
एक ऐसी कोठरी में हूँ जिसकी चाबी गुम गई है कहीं ..
न दरकार है किसी को उसे खोजने की
और न चाहत है हमें भी उसे ढूंढने की ..
अब तो इस अँधेरे से याराना सा लगता है अपना ..
तन्हाई भी अच्छी लगती है अब ..
ये मायूसियाँ सहेली लगती हैं
और ये सन्नाटे अपने से लगते हैं अब !!