अपनी आँखों की कालिख से ढकी हो तुम
इस कालिख में छिपा तेरा कोरा अंग
इस कालिख से ढका तेरा सतरंगी मन
ये कालिख जिसपे किसी रंग की छटा नहीं खिलती
ये कालिख जिसपे कोई रस्म नहीं सजती
ये कालिख जिसकी खातिर कोई नज़्म नहीं बनती
इस कालिख से छन के आती तेरे अंगों की रोशनी
भी चुपचाप सी है तुम्हारी ही तरह ..
तुमने इसे अपनी आँखों में सजाया ,
इसमें खुद को छिपाया ....
ढक कर तुम्हें इसने तेरा मान बचाया
या तुमने ख़ुद पे देकर जगह इसे इसका मान बढ़ाया ..
मैंने कई बार पूछना चाहा तुमसे ये सवाल
पर तुम्हारी आँखों ने कुछ भी कहने से हर बार इन्कार किया !!
No comments:
Post a Comment